उत्तराखंड
विशेष: अखबार में पत्रकारिता कम , नौकरी ज्यादा की, जानिए कैसे
देहरादून। वरिष्ठ पत्रकार राजेश पांडे जी इन दिनों अपनी facbook वॉल पर पत्रकारिता की वर्तमान हक़ीक़क्त को बयां कर रहे हैं। लिहाजा इन दिनों इन लेखों को पढ़ने वाले जरूर आत्मा से सपोर्ट कर रहे होंगे लेकिन मुंह से नहीं बोल पा रहे होंगे, आखिर पत्रकारिता कम नौकरी ज्यादा होने लगी है।
आइए जानिए क्या लिखते हैं राजेश पांडे
अखबार में पत्रकारिता बहुत कम, नौकरी ज्यादा की
कभी कभार तथ्य और सच भी बहुत अच्छा प्रभाव नहीं डालते, इसलिए इनको रोकना सही माना जाता है
बुरा मत मानना, अखबार में नौकरी ज्यादा होती है, पत्रकारिता बहुत कम। भले ही उसमें पत्रकारिता वाले पद नाम दिए जाते हैं। अधिकतर बड़े मुद्दों या बड़ी खबरों पर गाइड लाइन मिलती है। यह ठीक है कि वरिष्ठ अधिकारियों से मार्गदर्शन और प्लान मिलना चाहिए। रिपोर्टर तो पूरी कोशिश करते हैं कि जमकर लिखा जाए। तथ्य हाथ में हैं तो लिखने में परहेज कैसा। पर कई बार उनको रोक दिया जाता है और खबरों की दिशा बदल दी जाती है।
इसका मतलब यह है कि आप वही लिखेंगे, जो आपके संपादकीय के बड़े अधिकारी चाहते हैं या कुछ मौकों पर मीडिया मार्केटिंग यानी मैनेजमेंट की टीम चाहती है। इसके साथ ही यह बात भी स्वीकार करता हूं कि अधिकतर मौकों पर खबरों को रोकने के बहुत वास्तविक कारण होते हैं। कभी कभार तथ्य और सच भी बहुत अच्छा प्रभाव नहीं डालते। इसलिए इनको रोकना सही माना जाता है। पत्रकार और पत्रकारिता को हमेशा सकारात्मक और संतुलित होना चाहिए। पत्रकारिता करने या पत्रकार बनने का मतलब यह कतई नहीं है कि कोई व्यक्ति मर्यादा और दायरों से बाहर आकर काम करे।
एक तरह से यह सही भी है कि आप ज्यादातर मामलों में नौकरी कर रहे होते हैं। पत्रकारिता तो वो कर रहे हैं, जिनके अखबार हैं। अखबार चलाने वालों ने समाचारों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए टीमें बनाई हैं, जिनमें खबरों से वास्ता रखने वालों को पत्रकार कहा जाता है। इनके पदनाम होते हैं। ये टीम नौकरी पर होती है और तनख्वाह व मानदेय प्राप्त करती है।
मैंने अखबार के संपादकीय विभाग में अधिकतर मौकों पर नौकरी की, जिसको सामान्य भाषा में पत्रकारिता कहा जाता है। पूर्व में मैंने लगातार अपनी तनख्वाह का जिक्र किया, जिसमें बताया कि इतने कम पैसे मिलते थे। पैसे तो आपको किसी विभाग या संस्थान में सेवाओं के बदले मिलते हैं। जो संस्थान या विभाग आपको सेवाओं के बदले तनख्वाह या मानदेय देगा, वो आपसे अपने हिसाब से कार्य लेगा। कोई भी संस्थान किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की वजह से पचड़े में क्यों पड़ेगा। उसके लिए सबसे पहले अपने व्यावसायिक हित होते हैं। किसी भी अखबार को बड़े स्तर पर निकालने के लिए बहुत सारे खर्च होते हैं। कर्मचारियों, अधिकारियों की सेलरी से लेकर कम्युनिकेशन के लिए सशक्त माध्यम स्थापित करने, आईटी इंजीनियरों और मैनेजरों की नियुक्तियां, सर्कुलेशन के लिए परिवहन बेड़ा, प्रिंटिंग के लिए आटोमैटेड मशीनें, प्रचार प्रसार के लिए भारीभरकम खर्च।
क्या अब भी आप कहेंगे कि किसी भी अखबार में तनख्वाह और मानदेय पाने के बाद भी नौकरी नहीं कर रहे हो। हां, यह सही है कि आप जब किसी अखबार में कुछ लिखते हैं, उसका प्रसार बहुत होता है। आप पर विश्वास किया जाता है। आपकी खबरों को लोग डाक्यूमेंट की तरह सहेजकर रखते हैं। आपका लेखन किसी विषय पर राय बनाने का काम करता है। आप शहर, राज्य और देश की प्रगति में योगदान देते हैं। इन सबके लिए आपको सम्मान मिलता है और प्रतिष्ठा बढ़ती है। समाज और सरकार को आपकी जरूरत होती है, क्योंकि अभिव्यक्ति का प्रसार ही मीडिया की शक्ति है। मीडिया को अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर करना चाहिए।
अगर किसी खबर को लेकर आप पर कोई मुसीबत आ भी जाए तो सबसे पहले आपका साथ वही लोग छोड़ देते हैं, जो लगातार खबर लिखने के लिए आप पर दबाव बनाते हैं।सुबह सुबह आपको फोन करके कहा जाता है कि आपकी खबरों में तेवर नहीं हैं। तेवर दिखाने का मतलब मेरी समझ में तो यही आता है कि आप कुछ विषयों पर लिखो, जिनसे आपका अखबार चर्चा में रहे। अखबार के माध्यम से तथ्यों के साथ सच को सामने लाओ। जब आप किसी सच को सामने लाने का प्रयास करते हैं तो जोखिम भी उठाना पड़ता है। आपको उससे संबंधित लोगों, अधिकारियों का वक्तव्य लेने के साथ ही जरूरत पड़ने पर फोटोग्राफ, वीडियो लेेने होते हैं। उस खबर के संबंध में डाक्यूमेंट्स इकट्ठे करने होते हैं। अगर, आपके पास एक भी तथ्य कम है तो खबर मत लिखिएगा। सीधा सादा रूल है कि किसी भी खबर से संबंधित तथ्य और साक्ष्य, आपको बचाने के साथ आपको शक्ति भी प्रदान करते हैं।
आपके पास तथ्य हैं या नहीं, इससे किसी को कोई मतलब नहीं। कई बार आप तथ्यों के साथ लिखते हैं, पर आप की कॉपी आगे नहीं बढ़ पाती। ऐसा कई दफा हुआ है कि डेस्क से इतने सवाल पूछवाए जाते हैं कि रिपोर्टर को लगता है कि यह खबर भेजकर कोई बड़ी गलती कर दी। कई बार रिपोर्टर पर शक किया जाता है। यही वजह है कि अखबारों में सॉफ्ट नेचर की खबरें, सूचनाएं, घटनाएं, सरकारी योजनाएं, भविष्य की प्लानिंग, प्रस्ताव, बैठकें, कार्यक्रम, समस्याएं आदि प्रकाशित होते हैं। ये भी खबरें है, इनका होना भी जरूरी है।
आप यह भ्रम मत पालिएगा कि किसी भी अखबार में कुछ खास बड़े मुद्दों पर आपकी कलम स्वतंत्र रूप से चल सकेगी। मैंने स्वयं वही किया, जो मुझसे कहा गया। मुझसे कहा गया कि लिखो, मैंंने लिखा। मुझे खबरों के फॉलोअप लिखने के लिए कहा गया, मैंने लिखे और फिर एक दिन कहा गया, नहीं लिखना है, मैंने लिखना बंद कर दिया। किसी भी बड़ी खबर का फॉलोअप जरूर होता है, उसको लिखना पत्रकार का कर्तव्य है। फॉलोअप किसी भी खबर की आगे की बात यानी इसमें होने वाला डेवलपमेंट है। इसी फॉलोअप में कुछ लोग खेल कर जाते हैं। खेल उन्हीं खबरों के फॉलोअप में होने की आशंका रहती है, जो कोई खुलासा करती हैं। मैं घटनाओं के फॉलोअप की बात नहीं कर रहा हूं। घटनाओं के फॉलोअप को लेकर तो अखबारों में स्पर्धा होती है।
फॉलोअप का एक किस्सा बताता हूं। मैं जिस शहर में रिपोर्टिंग करता था। वहां एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। शहर के लिहाज से यह बड़ा कार्यक्रम था। राजधानी से पहुंचे बड़े अधिकारी स्वयं इस कार्यक्रम में सुरक्षा व्यवस्था देख रहे थे। जिनकी सुरक्षा के लिए यह सब इंतजाम किए गए थे, वो महत्वपूर्ण पद पर आसीन थे। उन्होंने अपने संबोधन में जो बात कही, उस पर एक अलग और बहुत महत्वपूर्ण खबर बन सकती थी। मैंने मूल खबर लिखी और उसके साथ बनने वाली खबर को नजर अंदाज कर दिया। इसका कारण यह था कि खबर लिखने से अनावश्यक मुझे परेशानियां ही झेलनी पड़ती, साथ कोई देने वाला नहीं था।
मैं पहले भी उन बड़े अधिकारी, जिनका सीधे तौर पर इस खबर से संबंध था, मुझे पूर्व की खबरों में नोटिस थमा चुके थे। मैंने सभी नोटिस अपने बड़े अधिकारी को भेजे थे। जिन खबरों पर अखबार के बड़े अधिकारी पहले शाबासी दे रहे थे, उन्हीं पर नोटिस मिलने पर नाराजगी जता रहे थे। हर बार मुझे अपना स्पष्टीकरण देना पड़ रहा था। किसी भी खबर पर नोटिस से कुछ नहीं बिगड़ा, क्योंकि हमने कोई ऐसा काम नहीं किया था, जिससे किसी से निगाहें मिलाने में डर लगता। आज भी आंखें मिलाकर बात करने की हिम्मत रखता हूं, यहीं मेरी जीत और अब तक की कमाई है।
मैंने खबर नहीं लिखी और दूसरे दिन रात को अपने अधिकारी को यह जानकारी भी दे दी। मैंने तो उनको बहुत सहजभाव से यह सबकुछ बताया, पर उन्होॆने मेरी जमकर क्लास ली। और यह तक कह दिया कि तुम उस अधिकारी से मिल गए हो। और भी न जाने… क्या क्या कहा। मेरी आंखें नम हो गईं। गलत बात, किसको अच्छी लगेगी। मैंने भी उनसे कह दिया, अभी दस बजे हैं और आधा घंटा में खबर भेज रहा हूं, लगाओगे। आपको उन बातों पर सहजता से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए, जो आपको अच्छी नहीं लगती हों। उन्होंने कहा, खबर भेजो।
मैं उनके सारे भ्रम तोड़ना चाहता था और उस खबर को अब लिखने में मुझे कोई एतराज नहीं था, क्योंकि इसको लिखने की परमिशन बॉस से ही मिली थी। ठीक आधा घंटे में खबर को भेज दिया। खबर, छपी पेज वन पर चार कॉलम में। खबर को देखकर मन बहुत खुश हुआ। दूसरे दिन खबर का फॉलोअप लिखना था। फॉलोअप भी बड़ा शानदार छपा। तीसरे दिन फिर खबर का फॉलोअप लिखना मेरा नैतिक कर्तव्य था। मैं खबर के लिए उन लोगों से बात करने गया, जहां से यह मामला उठा था। मैं अभी उन लोगों से कुछ डाक्यूमेंट्स एकत्र कर ही रहा था कि मेरे पास अपने बड़े अधिकारी का फोन आ गया।
उन्होंने पूछा, क्या कर रहे हो। मैंने बता दिया कि कहां बैठा हूं और क्या कर रहा हूं। उन्होंने कहा, छोड़ो, अब मत लिखो। मैंने कहा, फॉलोअप लिखना बहुत जरूरी है। उन्होंने कहा, छोड़ो। फिर उनसे उस रात की बात को लेकर चर्चा हुई, जब उन्होंने मुझ पर उस अधिकारी से मिल जाने का आरोप लगाया था। वो हंसते हुए बोले, तुम भी न टॉनिक (फटकार) दिए बिना कोई काम नहीं करते। मैं चुप्पी साध गया, क्योंकि मैं बहुत कुछ समझ गया था। हो सकता है कि उनकी नजर में खबर में फॉलोअप की जरूरत ही न हो।
अब आप ही समझ लीजिए, जिस व्यक्ति को किसी खबर का फॉलोअप लिखने से रोक दिया जाता है, क्या वो पत्रकारिता कर रहा है। मैं तो स्वीकार करता हूं कि अधिकतर बार मैंने खुद को पत्रकारिता करता नहीं बल्कि महीने के आखिरी में तनख्वाह के लिए नौकरी करते पाया।
मैंने आपसे खबरों में मैनेजमेंट के दखल पर कुछ बताने का वादा किया था, पर आज कुछ और ही साझा कर दिया। इस पर जल्द ही कुछ साझा करूंगा….। आपके स्नेह के लिए बहुत सारा धन्यवाद।
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